दीवाली और पटाखे-जब हाथ में ही फट गया सुतलीबम(संस्मरण)

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दीवाली और पटाखे-जब हाथ में ही फट गया सुतलीबम(संस्मरण)

 

बीता वक्त दुबारा लौटकर तो नहीं आता लेकिन बीते वक़्त की जुगाली करने से हमें कौन रोक सकता है? मेरे बचपन में दीवाली से एक महीने पहले से ही गाँव में हलचल मच जाती.मिट्टी के घरों की छबाई, लिपाई, पुताई मुख्यतौर पर महिलाओं की ही जिम्मेदारी रहती.इन्हीं दिनों खेती का भी काम रहता और मलेरिया का प्रकोप भी सो मजदूरों की कमी भी बनी रहती.घर की महिलाएं ही मोर्चा संभालती.मिट्टी से मिट्टी के घरों को दुरुस्त करना, गोबर से लिपाई और छुई से पुताई.खपरों के किरकौआं से मजोठे को पक्का करना,चौका,मिट्टी के चूल्हे,मिट्टी की गुरसी(गोरसी) मिट्टी की चखिया बनाना उन्हें दुरुस्त करना, गेरू से रंगाई सबकुछ हाथ की मेहनत और मन की लगन से ही सम्पन्न किया जाता था.तब बाज़ार हम पर निर्भर था हम बाज़ार पर निर्भर नहीं हुए थे !!

लक्ष्मीपूजन के साथ ही गौमाता की पूजा,गाय ,बैल,भैंस ,बछड़ों को रंगना ,सुबह पूरे मोहल्ले का एक जगह इकट्ठा होकर पटाखों से जानवरों को बिचकाना,पूरे घर के गोबर को एकत्र करके विशाल गोबर्धन(गोधन बब्बा) को बनाना और फिर इन्हीं गोधन बब्बा की पूजा करने के बाद उनके कान खोलने के लिये उनके बड़े पेट में सुतलीबम रखकर चलाना और गोबर का पूरे घर-आँगन में छितरा जाना.माँ का गुस्सा होना ही हमारी बाल लीलाएँ थीं जो आज बहुत-बहुत याद आती हैं. 

उन्हीं सुनहरे दिनों का यह किस्सा है👍

उन दिनों तीन तरह के पटाख़े आते थे.जिनका नामकरण हमने छोटे,मँझले और बड़े पटाख़े के तौर पर कर रखा था.हाथ से पत्थर पर मारकर फोड़ेजाने वाला पत्थरफोड़ा, गंगा-जमुना बम पटाखा, बारूद भरकर चलाई जाने वाली गज-कुंडी,बाद में आया सुतलीबम. ये सब दिन में चलाए जाने वाले पटाख़े थे.रात में रॉकेट,चील गाड़ी,चखरी,अनार,सांप की गोली आदि बेआवाज़ पटाख़े चलाये जाते थे.बच्चों के लिये लाल बिंदी जैसी चिटपिटी(टिकली) आती थी.जिसे पत्थर से दौंच कर चलाते थे.कुछ बच्चों के लिये इसे चलाने के लिये तमंचा भी मिल जाता था.बाद में इस चिटपिटी में भी सुधार हुआ और यह एक रील में बदल गई.इसे चलाने के लिये तमंचे की जगह बंदूक आ गई जिसमें यह रील भरकर चलाई जाती थी.लेकिन यह सभी बच्चों को उपलब्ध नहीं हो पाती थी.वे घोर ग़रीबी और अभावों के दिन थे!सामान्य परिवारों के बच्चे तो टिकली को पत्थर पर रखकर पत्थर से दौंचने का ही आनन्द लेते थे.

जब हाथ में ही चल गया सुतलीबम?

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छोटे पटाख़े को एक हाथ में सुलगती कंडी(कंडे का टुकड़ा) से पटाख़े की बत्ती छुआ कर दूर फेंक दिया जाता था.कुछ दुःसाहसी मंझले और बड़े पटाख़े भी इसी विधि से चला देते थे.गाँव की मंडली में इन दुःसाहसियो को सम्मान की नज़र से देखा जाता था.सबसे ज़्यादा आंनद तो वे लोग लेते थे जो सिर्फ़ पटाख़े चलाने वालों पर चिल्लाते थे.ज़ल्दी छोड़ो…… हाथ में चल जाएगा….. अरे!मरोगे का……..काय भैया जभई समझ में आहे जब भुजं जै हो…अरे…चिक गए रे…पर गई साता !! अपने दोनों कानों पर हाथ रखकर चिल्लाने वालों की यह भीड़ पटाखा-वीरों का ध्यानभंग करती थी.

हमारे मोहल्ले में एक दादा(बड़े भाई को यह सम्बोधन दिया जाता है) थे.उनके एक हाथ में सुलगती हुई कंडी थी और वे हाथ से ही पटाख़े चला रहे थे.पहले उन्हौने छोटे,मंझले,, बड़े पटाखों पर अपनी कला का प्रदर्शन किया.फिर उन्होंने घोषणा की आज वे सुतलीबम भी हाथ से चलाएंगे.यह बम बड़ा ख़तरनाक होता है और बहुत तेज़ आवाज़ के साथ फटता है. इसे हाथ से चलाना ख़तरे से खाली नहीं.भीड़ में सभी ने मना किया.लेकिन जितना मना किया जाता दादा की ज़िद उतनी ही बढ़ती जाती.एक हाथ में सुलगती धुआं छोड़ती कंडी और एक हाथ में सुतलीबम लिये दादा साक्षात ” पाकिस्तान ” हुए जा रहे थे. ऊपर से तो सूरमा बन रहे थे लेकिन अंदर धुकधुकी बढ़ी हुई थी.जैसे ही दादा ने सुतलीबम की बत्ती को कंडी से छुआया भीड़ समवेत स्वर में ज़ोर से चिल्लाई-छोड़ दो…. .दादा ने बिना सुलगा सुतलीबम फेंक दिया. लोग हँसने लगे.दादा फिर उसे उठा कर लाये ,कंडी में फूंक मारकर आग को चैतन्य किया और सुतलीबम की बत्ती को आग से छुआया ही था कि सभी लोग कान पर हाथ रख कर जोर से चिल्लाए -छोड़ दो..छोड़ दो..दादा का ध्यानभंग हो गया.घबराहट में सुतलीबम तो हाथ में ही रह गया और जलती कंडी फेंक दी.सुतलीबम हाथ में ही फट गया. हाथ के चिथड़े उड़ गए .महीनों इलाज़ चला .

सुरेंद्रसिंह दांगी, अध्यक्ष,पंचतत्व संरक्षण समिति,गंज बासौदा.

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विचारों मे दृढ़ता व व्यवहार में नम्रता ही शक्ति की सफलता का परिचायक है | स्त्री विचारों एवं कर्म से पूर्ण रुपेण शक्ति व सामर्थ्य की प्रतीक है, वह राष्ट्र की धुरी है l यह बात राष्ट्र सेविका समिति विदिशा नगर पथ संचलन जयोस्तुते कार्यक्रम की मुख्य वक्ता राष्ट्र सेविका समिति मध्य भारत प्रांत की प्रांत कार्यवाहिका अनघा साठे जी ने रखी l

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